Friday 21 October 2016

पथिक...




पीर दिखने लगी है
रपटने लगे हैं भाव
अंतस में जम गई काई
अबोले ही.......

दोष नहीं है तुम्हारा
न रोष है नियति पर मुझे
अनचाहा गीत ही सही
बज जाने दो......

न रक्तिम हूं
ना ही तुम्हारा रक्त
पश्चाताप में सही
भस्म हो जाने दो

यायावार हूं
अज्ञानी भी
अक्खड़ हूं
अभिमानी भी
अब
मुझे पथिक हो जाने दो
अब
.. पथिक हो जाने दो

Wednesday 19 October 2016

उपवास....

alka awasthi

 नहीं है उपवास मेरा 
तुम्हारी लंबी उम्र के लिए
 भरोसा है मुझे
अपनी सांसों  की डोर पर 
कि  मजबूत हैं जब तक वो
 कुछ नहीं  होगा  तुम्हें

हाथों की लकीरें 
 ले आयी हैं जो तुम तक 
विधाता की रची  ही तो हैं 
 देखो ना....  शहर में तुम्हारे 
उत्तरवाहिनी  हैं  गंगा भी

हो सवार समय रथ  पर
 नित्यप्रति 
 तय कर रहे हैं हम 
नया सफर

 तपिश तरणि  की 
जिस रोज न जलाये तुम्हें
समझ  लेना मुक्त हो गई मैं 

प्रत्येक विभावरी
तब रखूंगी उपवास 
ऊँचे नीले वितानों पर ......




Sunday 16 October 2016

समय का चक्र .....

alka awasthi
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समय कहाँ भर पाता  घाव 
वो तो बड़ी सहजता,  सुगमता से 
कुरेदता  सपने... 

समय अक्खड़ -अडिग 
मुस्कुराता उसी ठौर 
जहाँ बिखरे पड़े हों सपने ..

 समय बुनता  चक्र 
हम अदने से फंसते 
जाल में.. 

समय बेचारा सा
हो जाता बेबस 
जब उसकी दी  चोट के  बावजूद 
उठ खड़ा होता कोई

सुनो  हे समय 
मेरे दर्द की दवा 
पूँछूँगी  तुम्ही से 
एक  बारगी ही सही 
कहीं मिलो तो मुझसे ....

  

Thursday 13 October 2016

अतीत की महक ...

alka awasthi



फैला कर बाहें प्रेम की
जाने कितनी बार 
 स्पर्श कर चुकी हूँ
चौखटों को  अतीत की


ले आती हूँ  धूल  मुट्ठी भर
बनाती हूँ तूलिका 
तुम, मैं, और समय 
आह ... 
 
 काश समझ पाती
नादानियां 
 समय रहते 

तो शायद
 मेरा आज 
दे पाता  मुस्कुराहटें चंद
कि ..  
 महसूसती   मैं भी
 महक लाल गुलाल की.. 




Saturday 8 October 2016

सिसकियों की कतरन..

alka awasthi

कट जाने दो
कतरा -  कतरा
बह जाने दो
नदियां रक्त की
धरा के जर्रे जर्रे में चटखे
सुर्ख लाल रंग


मत पीटो
 दिखावे का ढोल
पढ़ाने, आगे बढ़ाने
हिम वेणू पर बिठाने के
सब्जबाग मत बोओ


 तन कर
अट्टालिकाओं  पर
पीटते हो पुरानी लकीरें
 दूर तक इंगित कर
गिना देते हो चंद नाम
गूंजती है जिनकी धमक
ऊंचे नीले वितानों पर

वो धनी थीं  किस्मत से
बदली जिन्होंने
तकदीर ..
लेकर तलवारें संघर्ष की
माथे पर गोद लिया "विजयी भव"


पर सुनो ..
हर संघर्ष की गाथा
कहलाए विजयश्री
जरुरी तो नहीं...


उसने भी चलाए थे
बरछी, ढाल, कृपाण
 वह ..
जो चिराग थी घर का
जिसकी अस्मत हुई तार-तार
जो आगोश में रात के ऐसा सोई
 कि फिर ना उठी


उस दिन ..
शर्मसार हुए क्या
 वो चंद लोग
जो खो गए
भीड़ में जलाते होंगे
कहीं मोमबत्तियां


तो तुम ही कहो ..
उन सिसकियों की कतरन तक
 खौफ में घुटें
या कोख में कट जाएं


हश्र तो वही है उनका
हो जाती हैं कतरा कतरा
धरा पर चटखता है सुर्ख लाल रंग..