Monday 5 September 2016

आयु भर आशीष....

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नित्य प्रति
व्योम के छोर में
छिन्न- भिन्न
टिमटिमाते हैं नाना - बाबा
झांकती हो तुम
विधु  के झरोखे से...

टपकाने लगती है रात
अमृत की
असंख्य बूंदे

कुलांचे भरते हरसिंगार को
थाम लेती है धरित्री

कुहुकती है कोयल
उन्मुक्त रंभाती हैं गायें

निथर आती है सुथराई
हरे - पीले पत्तों पर

अंशुमाली की प्रथम रश्मियों संग
उतर आता है प्रेम तुम्हारा
स्व में स्व से उगते क्षणों सा
देने को आयु भर आशीष..

अबोले
यूं ही मां
तू साथ है मेरे....