alka awasthi
टूट चुकी है साख
गहराने को हैं रंग
दरख्तों के...
सरसों के रौंदे खेतों में
कब, किसने देखी है !
बसंत की आवक..
कौन चढ़ाता है
सूखे फूलों को
देवालयों, मज़ारों पर..
भट्ट लाल
भानु के ताप से
सूख जाती हैं
नदियां भी..
मैं नहीं हूं सागर
कि हो ..
अंबार..
गुंजाइशों का.....
मैं प्रेम हूं
बहकर निकल गई
कोरों से...