Tuesday 8 March 2016

शनै..शनै....

alka awasthi



टूट चुकी है साख
गहराने को हैं रंग 
दरख्तों के...

सरसों के रौंदे खेतों में 
कब, किसने देखी है !
बसंत की आवक..

कौन चढ़ाता है
सूखे फूलों को
देवालयों, मज़ारों पर..

 भट्ट लाल 
भानु के ताप से
सूख जाती हैं
 नदियां भी..

मैं नहीं हूं सागर
कि हो ..
अंबार..
गुंजाइशों का.....

मैं प्रेम हूं 
बहकर निकल गई
कोरों से...