alka awasthi
पलकों के संपुट तले
आंशिया है मेरा
घरौंदा मन का....
चली जाती हूं हर रात
उसे बुहारने
झाड़ने, पोंछने
सुखद है यह अहसास भी....
सहेजा है
कमरेां में
मीठी यादों को
तुम्हारी ठिठोली
तुमसे बतियाना
वो गंगा किनारे पहरों बिताना
चुस्कियां चाय की
गलियों में खो जाना
इठलाना- इतराना
तुम संग कुछ गुनगुनाना
हां बस ...
अब यही नियति है मेरी
सोचती हूं
क्यों नहीं बंद हो जाती
ये मुई पलकें
ऐसे ही सही
अहसास तो रहता तुम्हारा......
सहेजा है
कमरेां में
मीठी यादों को
तुम्हारी ठिठोली
तुमसे बतियाना
वो गंगा किनारे पहरों बिताना
चुस्कियां चाय की
गलियों में खो जाना
इठलाना- इतराना
तुम संग कुछ गुनगुनाना
हां बस ...
अब यही नियति है मेरी
सोचती हूं
क्यों नहीं बंद हो जाती
ये मुई पलकें
ऐसे ही सही
अहसास तो रहता तुम्हारा......