Saturday 20 August 2011

हाशिये पर..


अविराम!
घात अघात के मध्य  
उर की तप्त व्यथाएं
न जाने कब?
बन जाती हैं
करुण कथाएँ
क्षीण कंठ की

रात के पसरे सन्नाटे में
नींद से कोसों दूर
भक्क लाल आँखों में
जलती रहती हैं स्मृतियाँ

कुछ चुह्चुहाई बूंदों से
सने होते हैं  गाल
और आँखों से निरंतर
उठता रहता है धुंआ

भींच लेती हूँ मुट्ठियाँ
देखती हूँ लकीरें हाथों की
जो सहसा धुंधलाती 
प्रतीत होती हैं 
ठीक रात जैसी

दिखती है तस्वीर  
खिचें हैं अनगिनत
आड़े तिरछे हाशिये

शायद..
यादों के निशां
बदल रहे हैं अपनी
दिशा-दशा

नक्षत्रों के नीचे
इस पार
पसीजते हैं पल

उस पार..
सब समझते हैं
कितनी खूबसूरत है ज़िन्दगी ..!

Tuesday 2 August 2011

उपहार..


कुछ खास अवसरों पर देखती हूँ 
लोग कुछ खास करना चाहते हैं 
जाकर तरह-तरह की दुकानों में 
बिलकुल अलग कुछ मांगते हैं 
जाने कितने रंगों से भरा समंदर 
समेटे होता है हर काउंटर 

कुछ भी चुन लीजिये साहब 
हर तरह के उपहार हैं 
कुछ आकृतियाँ, कुछ ग्रीटिंग कार्ड हैं 
कुछ पर शिमला-मसूरी-देहरादून हैं 
कुछ पर नावें और सतरंगी फूल हैं 

कहीं कान्हा के संग राधा है दीवानी 
कहीं जंगल बादल और है झरने का पानी

ये मूर्तियाँ हैं फेंगशुई की 
घर में खुशहाली लाती हैं 
दुकानदार की ये बातें 
मुझे परेशान किए जाती हैं 

मौन होकर सोचती हूँ 
क्या तुम्हें भी ये उपहार पसंद हैं! 
गिने चुने अवसरों के बाद जिनका 
न कोई रूप है न रंग है 

कुछ ऐसा लेना है मुझको 
जो महज अवसरों पर नहीं 
अकेलेपन, बेरौनक उदासी के समय 
तय कर सके लम्बी दूरी 
और झट से तुम तक पहुँच कर
साक्षी हो जाए मेरे अपनेपन का
अनोखा साथी मन के सूनेपन का 

एक ऐसा उपहार 
जिसमें सौहार्द का स्पर्श
आत्मीयता की गंध हो 
दिखावट से मुक्त 
जो स्वतंत्र हो, स्वच्छंद हो
एक ऐसा उपहार जो तुम्हें 
सचमुच पसंद हो.. 

( यह कविता मैंने अपने एक मित्र के लिए लिखी है जिसका उपहार  मुझ पर उधार है..)