Monday 25 July 2011

कवच..




सुनो 
 हे यायावर..


निशदिन   
स्वर्णिम बेला में
नक्षत्रों के मध्य 
 दीप्तिमान रहकर
भर-भर अन्जुलियाँ 
प्रक्षालित करते हो
वात्सल्य की
 गुनगुनी धूप..

अंशुमाली संग..
रथ पर सवार हो
तुमसे ही प्राप्त 
नेह रश्मियाँ
प्रत्येक प्रत्युष मुझे
कर देतीं हैं भाव विभोर.. 

प्रति दिव
दिए संस्कारों संग
चलती हूँ धरित्री पर..

गभुआई सुथराई 
करती है..
 नित्य-प्रति आलिंगन
दूब के बिछौने पर,
झरता रहता है आशीष
सरसराते पत्तों संग..

स्वतः ही
खिलखिलाकर
सरपट दौड़ जाती है
बयार..
ढरकाते हुए स्नेह
उत्ताल ललाट पर

सम्मुख है दीखता
उत्सव हरसिंगार का 
बेलौस झूमकर
नेपथ्य में है अटा पड़ा.. 

तारकों की
उद्दाम विभाओं संग 
जीवन पाथेय के
उत्तम, धवल दर्शन 
अनुदिन दे देते हो 

आज भी
कवच बनकर
मंडराती रहती है
मलयज पवन
चहुँ ओर 
  हर पल -हर क्षण ..