Monday 21 March 2011

युगान्तरों तक...


प्रात  के  पहर  में 
अप्रतिम  रूप  से  फैली
अरुणिमा की सिन्दूरी विमायें 
करती हैं सर्जना 
प्रीत तूलिका की
प्रति,  दिन- बरस -  युग

झुरमुटों से झांकती 
अलसाई पड़ी सुथराई
  बहकर बयार संग 
गाती  राग फाग का
अटा पड़ा है लालित्य
हर,  पुष्प-विटप-निकुंज पर 

मुकुलित पड़े हैं सब 
कचनार-कुमुदनी औ 'कदम्ब'
भिन्न रंगों में रंग गए
 खेत-बाग-वन 

इक रंग तो मुझ पर भी है 
रहेगा युगों तक 
नेह-प्रेम -औचित्य का 
 गहराता जाता है 
हर क्षण - पल -पहर 

 देता है अपरिसीम पुलकित स्नेह 
अंतस से करता आलिंगन
गूंजता है चहुं ओर
चटक जैसे अंशुमाली 

रंग...
बन हर्षिल प्रभाएं 
करता  नव्याभिमाएं 
भरता पुष्प नवश्वास के 
हर शिरा - रोम -व्योम में 


 देखो ना 'सांवरे'
फाग के इन
  लाल-पीले-हरे-नीले 
विविध रंगों से 
कितना चटक है 
तुम्हारी प्रीत का रंग  
रहेगा मुझ पर बरसों-बरस 
युगान्तरों तक.....

Saturday 5 March 2011

अव्यवस्थित स्नेह ....



पवन की पालकी पर सवार हो
पुलकित स्नेह का
नैसर्गिक सौंदर्य
निचोड़  देती हूँ अक्सर
बादलों की मुट्ठियों से
तुम तक पहुँचती तो होंगी
ये खुशबूदार बरसातें!


जिक्र तो किया था तुमने भी
रेशमी एहसासों का 
उपवन के  पहले गुलाब की खुशबू का 
बादलों के बीच मुकाम  का
बंद मुट्ठी  से निकली दुआ का 
और फिर ठिठक कर कहा ...जाने वो क्या था


तुम्हारे विचारों के झुरमुट से 
उन्नयन करता कड़वापन
इंगित कर देता है
संदेह की दस विमायें


ऐसा तो नहीं
मेरे स्नेह पुष्प चले गए हों
किसी अगत्यात्मक देश
बन कपूर की गोटी
शायद  घुल गए हों !


मत रखो आक्रोश
नहीं जंचता क्षोभ तुम पर
बाँट लो स्मृतियाँ
अव्यवस्थित कर दो स्नेहिल शब्द 
चटका दो पगे प्रेम का घड़ा

निः संकोच, संभव हो यथा 
बुहार दो अवशेष नेह के   
इतिवृत्तों को पोंछ दो
खींच दो हाशिये की  नदी
गढ़ों प्रेम के नए सोपान


संभवतः  
उस प्रणय  सरिता में
स्वायत्त प्रशमन करते 
तुम्हारे संदेहात्मक शब्द 
मोक्ष पाएं ...