Sunday 4 December 2011

पाथेय..














रे मन
कहाँ चाहते हो विचरना
औ सुनो..
ठहरने का ठौर भी कहाँ है ?
इसलिए बाँध लो पाथेय
जिस पथ मैं रुकूँ
तुम चलो..

भींच कर यूं मुठ्ठियाँ 
कैद क्या हो कर रहे
विस्मृत कर स्मृतियाँ 
बस बढ चलो 
जो राह मिले 
नेह में यदि मैं गिरूँ 
तुम उठो..

सुनो..
क्या चाहते हो खोजना 
जो मुस्कराहट के
बीज बोये थे 
वो फसल 
काट ली है किसी ने 
अच्छा हुआ..
वो फलियाँ प़क कर 
 नासूर बन गयी थी
शूल पथ पर 
यदि मैं थकूँ
तुम चलो.. 

बांध 
भावनाओ का 
भर गया था
इन मुई पलकों में 
आज जम गया 
अभी- अभी इसे  छूकर गयी है 
भावहीन ठंडी बयार
शीत बनकर जिस पथ
मैं जमूं
तुम बहो.. 

बातें पर्वतों की तरह
खड़ी हो गयी थी जो
चल पड़ी हूँ वहां से
ये व्यथा बनाएगी
इक नया रास्ता
दीप बनकर जिस पथ
मैं बूझूं 
तुम जलो.. 

लीक पर तू मत विचरना
लीक पर  तो वो  चले 
जिनके दुर्बल हों चरण
जो पथ स्वयं से
मैं बुनू 
वो तुम चुनो ..  

मैं मुसाफिर, तू मुसाफिर 
शूल से फिर क्यों डरें
इक ठांव जो हम रुक गए
तो फिर
पथिक ही क्या रहे
इसलिए
बाँध लो पाथेय
जिस पथ मैं रुकूँ
तुम चलो...

Saturday 20 August 2011

हाशिये पर..


अविराम!
घात अघात के मध्य  
उर की तप्त व्यथाएं
न जाने कब?
बन जाती हैं
करुण कथाएँ
क्षीण कंठ की

रात के पसरे सन्नाटे में
नींद से कोसों दूर
भक्क लाल आँखों में
जलती रहती हैं स्मृतियाँ

कुछ चुह्चुहाई बूंदों से
सने होते हैं  गाल
और आँखों से निरंतर
उठता रहता है धुंआ

भींच लेती हूँ मुट्ठियाँ
देखती हूँ लकीरें हाथों की
जो सहसा धुंधलाती 
प्रतीत होती हैं 
ठीक रात जैसी

दिखती है तस्वीर  
खिचें हैं अनगिनत
आड़े तिरछे हाशिये

शायद..
यादों के निशां
बदल रहे हैं अपनी
दिशा-दशा

नक्षत्रों के नीचे
इस पार
पसीजते हैं पल

उस पार..
सब समझते हैं
कितनी खूबसूरत है ज़िन्दगी ..!

Tuesday 2 August 2011

उपहार..


कुछ खास अवसरों पर देखती हूँ 
लोग कुछ खास करना चाहते हैं 
जाकर तरह-तरह की दुकानों में 
बिलकुल अलग कुछ मांगते हैं 
जाने कितने रंगों से भरा समंदर 
समेटे होता है हर काउंटर 

कुछ भी चुन लीजिये साहब 
हर तरह के उपहार हैं 
कुछ आकृतियाँ, कुछ ग्रीटिंग कार्ड हैं 
कुछ पर शिमला-मसूरी-देहरादून हैं 
कुछ पर नावें और सतरंगी फूल हैं 

कहीं कान्हा के संग राधा है दीवानी 
कहीं जंगल बादल और है झरने का पानी

ये मूर्तियाँ हैं फेंगशुई की 
घर में खुशहाली लाती हैं 
दुकानदार की ये बातें 
मुझे परेशान किए जाती हैं 

मौन होकर सोचती हूँ 
क्या तुम्हें भी ये उपहार पसंद हैं! 
गिने चुने अवसरों के बाद जिनका 
न कोई रूप है न रंग है 

कुछ ऐसा लेना है मुझको 
जो महज अवसरों पर नहीं 
अकेलेपन, बेरौनक उदासी के समय 
तय कर सके लम्बी दूरी 
और झट से तुम तक पहुँच कर
साक्षी हो जाए मेरे अपनेपन का
अनोखा साथी मन के सूनेपन का 

एक ऐसा उपहार 
जिसमें सौहार्द का स्पर्श
आत्मीयता की गंध हो 
दिखावट से मुक्त 
जो स्वतंत्र हो, स्वच्छंद हो
एक ऐसा उपहार जो तुम्हें 
सचमुच पसंद हो.. 

( यह कविता मैंने अपने एक मित्र के लिए लिखी है जिसका उपहार  मुझ पर उधार है..) 

Monday 25 July 2011

कवच..




सुनो 
 हे यायावर..


निशदिन   
स्वर्णिम बेला में
नक्षत्रों के मध्य 
 दीप्तिमान रहकर
भर-भर अन्जुलियाँ 
प्रक्षालित करते हो
वात्सल्य की
 गुनगुनी धूप..

अंशुमाली संग..
रथ पर सवार हो
तुमसे ही प्राप्त 
नेह रश्मियाँ
प्रत्येक प्रत्युष मुझे
कर देतीं हैं भाव विभोर.. 

प्रति दिव
दिए संस्कारों संग
चलती हूँ धरित्री पर..

गभुआई सुथराई 
करती है..
 नित्य-प्रति आलिंगन
दूब के बिछौने पर,
झरता रहता है आशीष
सरसराते पत्तों संग..

स्वतः ही
खिलखिलाकर
सरपट दौड़ जाती है
बयार..
ढरकाते हुए स्नेह
उत्ताल ललाट पर

सम्मुख है दीखता
उत्सव हरसिंगार का 
बेलौस झूमकर
नेपथ्य में है अटा पड़ा.. 

तारकों की
उद्दाम विभाओं संग 
जीवन पाथेय के
उत्तम, धवल दर्शन 
अनुदिन दे देते हो 

आज भी
कवच बनकर
मंडराती रहती है
मलयज पवन
चहुँ ओर 
  हर पल -हर क्षण .. 

Wednesday 8 June 2011

निशदिन..



अंतस के कोरों में
चुपचाप खिलते हैं 
धमनी-शिराओं में 
घुलते -रहते हैं
निशदिन, पलछिन..

ज़मीं हो या फ़लक 
निहारती हूँ जहाँ कहीं 
हौले से बरस जाते हैं
ज्यों स्वर्ग से उतरे हों अभी 
रहते हैं खिले खिले 
दूधिया यूं धुले धुले..

बड़े ठाट से
चढ़कर धड़कनों  पर 
उतर आते हैं 
भीतर आत्मा तक  
रहते हैं नितांत मेरे 
सांसों में महकते हैं.. 


पापा कहते हैं
माँ के पास अथाह धीरज है 
फिर भी मुझे गले से लगाकर 
प्रस्फुटित हो जाता है प्रपात
और फिर 
झरते हैं आसमान से  
माँ के नेह के फूल ..

Friday 27 May 2011

सपने...



सपने जो पल गए थे
मीठी लोरियों की थापों में
झर झर झर गए
जाने कहाँ सो गए

हलके हांथो से
बांध सुतली जिसमे
पलना झुलाती थी माँ
वो लकड़ी के झूले
टूट गए, बिक गए, कबाड़ हो गए

जिन खिलौनों से खेलता था मुन्ना
आज भी कहीं सहेजे हैं अम्मा
सफ़ेद हो गए हैं मुन्ने के भी बाल
जाने कितने बीत गए हैं साल

अब,
लुढ़की रहती हैं कहीं
किसी खाट पर
डांट खा जाती है
बात बात पर
चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी हैं
आँखें भीतर गढ़ गयी है

टुक टुक निहारती
जाने क्या तलाशती
चेहरे पर दीखते
कई भाव..
दुःख-सुख की अनुभूति लिए

कोरों में चुपके से
छलक आते  हैं कुछ सपने
बनके आंसू  
झट से आँचल में उन्हें
छुपा लेती है

पूछती हैं धीरे से
ए मुन्ना...
गंगाजल अपने हांथों से
पिलाओगे न !

जीवन के बुझते दिए संग 
सपने बुन रही है 
जिन्दगी को ठेलते हुए
जी रही है 

किन्तु  समय ..
कब, किसकी, कहाँ, सुनता है 
वो तो झर-झर निर्झर बहता है
खिलौने टूट चुके हैं 
सपने छूट चुके हैं

आँचल
लहरा कर
आसमान में 
उड़ा जा रहा है
दूर...न जाने कौन
"अम्मा को लोरी सुना रहा है..
अम्मा को लोरी सुना रहा है" ...

Wednesday 11 May 2011

सुकूं....


दूर तक फैले रेत के समंदर में 
गहरे निशां भी
हवा के झोकों संग
चले जाते हैं दूर ...जाने कहाँ !

अंत और अनंत के
गहरे अंधेरों में
मौन हो रहे हैं पदचिन्ह 
शनैः- शनैः मूक हो रही हूँ  मैं भी

सपनों के घने पेड़ भी
शाख विहीन हो गए हैं
अब नहीं बना पायेगी कोई उम्मीद
 नया घोसला..

मैंने तुम्हें कहाँ कहाँ नहीं तलाशा
पहाड़ी मैदानों से होकर
रेत के कटीले रेगिस्तानों तक
स्याह हो गए मेरे दिन और रात

और तुम ....
बहते रहे झर झर
इन्हीं आँखों से
बन के आंसू
निकलते रहे , गलते रहे

 क्षितिज के पार आकर जाना
 सुकूं कहाँ  मिलता है !

Monday 25 April 2011

देवताओं की टीआरपी............

  लेडीज ही बढ़ाती हैं देवताओं की  टीआरपी...



इतना गुस्सा काइकू  गॉड ? अरे, ये तो समझो कि ये लेडीज आपसे कितना प्यार करती हैं। और वैसे भी गुस्सा तो राक्षसों का  गहना होता है, तो प्लीज गॉड टेक  ए चिल पिल।

मार्केट से लौटते समय उस मंदिर के  आगे रोज मेरे पांव ठिठक जाते हैं। लेडीज दीवानों की तरह भीड़ लगाकर वहां खड़ी होती हैं। सूट वालियां भी, साड़ी वालियां भी और जींस वालियां भी। सब के सब एकता  कपूर के  सीरियल से सीधे भागकर आए हुए से। इतने रिलीजियस लोग या तो उन सीरियलों में देख लो, या फिर उस मंदिर के  आगे। आखिर मैंने झां कर देख ही लिया कि कौन  से भगवान का  निवास है वहां। देखा तो बिलकुल  उस ऐड की तरह शॉक  लगा, शॉक  लगा, शॉक  लगा। और एकदम सीरियल वाले स्टाइल दिल में एकाएक  हुआ - नहींईईईई.... ये क्या ? अभी तक  तो सिर्फ हनुमान जी के  बारे में सुना था। शनिदेव तुम भी ? यू टू ? भेजा घूम गया था, वहां लगे बोर्ड की वजह से। आप खुद ही पढि़ए - लिखा है महिलाएं दूर से ही दर्शन करें , मूर्ति को  हाथ न लगाएं।

 हनुमान जी ब्रह्मचारी देवता हैं। लेडीज से दूर ही रहते हैं, ये तो पता था। अजी, पता क्या था एक  दिन एक  मंदिर में जाकर पुजारी जी ने फेस-टू-फेस बोल ही दिया। बच्चे को  लेकर हनुमान मंदिर जाने की जिद थी मम्मी जी की,  तो चल दिए आशीर्वाद लेने। पुजारी जी ने बच्चा गोद में लिया, एक  सेकेड को  रुके  और पूछ डाला - लड़की तो नहीं ? हमने फौरन कोरस में पूरे कानफीडेंस  से कहा - नहीं नहीं, लड़का  है,  लड़का है। पुजारी जी ने राहत वाली स्माइल दी और बच्चे को  लेकर चल दिए दर्शन कराने। 

एनीवे, उस दिन हनुमान जी के  बारे में सॉलिड ज्ञान मिला था कि  वह कितना सीरियसली लेडीज से दूर रहते हैं। लेकि न शनि देव आप भी।  आपसे तो मुझे सिम्पेथी थी। आप के ओवर एस्टिमेटिड खौफ की वजह से। साढ़े साती और उसका बुरा असर एंड ऑल दैट स्टफ। मगर आपने भी लेडीज को  इनफीरियर ही समझा है। इसका  रिलीजियस कारण क्या है, मैं उसमें पडऩा नहीं चाहती पर मुझे इनफीरियॉरिटी का  अहसास हुआ।

 पर आप  कुछ  जानते भी हो शनिदेव ? और आप भी सुनो हनुमान जी... जिन लेडीज से आप देवता लोग दूर भागते हो, वही तो आपकी असली फॉलोअर हैं, वही तुम्हारी टीआरपी बढ़ाती हैं और वही असली व्यूअरशिप देती हैं। क्योंकि पुरुष तो खुद देवता होता है  (नो ऑफेंस, लेकिन होता तो है ही,  पतिदेव कहते तो हैं कुछ लोग,  और वो करवा चौथ के  दिन तो देवत्व अपने पीक  पर होता है, हालांकि  उनकी   टीआरपी भी लेडीज ही बढ़ाती हैं)। इन पुरुषों का  वश चले तो आपको  जीरो व्यूअरशिप वाला कोई टीवी प्रोग्राम बनाकर रख छोड़ें। यकीन नहीं तो पूछ लो किसी भी ऐवरेज पुरुष से।  धर्म और भगवान के  नाम पर लड़ाई तो कर लेंगे, लेकिन पत्नी और परिवारव्रता तुलसी टाइप बीवी जब ऑफिस से शाम को  जल्दी घर आने को   कहती है कि हवन रखा है और तुम्हें पूजा में बैठना है तो इन्हीं से पूछो इनके  दिल पर कितनी छुरियां चलती हैं।

या फिर आप इनसे पूछो कि इनमें से कितने पर्सेंट पुरुष आपके  या दूसरे किसी भगवान का  व्रत रखकर रोज सुबह घंटी और शंख बजाते हैं। सर्वे  करवाओ, पता लगाओ, कंपेयर  करो।  अरे व्रत तो छोड़ो, घर में टाइम पर खाना न मिले तो राजेश खन्ना से अमरीश पुरी  के कैरेक्टर में घुसने में दो मिनट से ज्यादा नहीं लगते इन्हें। और अगर तुम्हें फैक्ट्स नहीं मालूम तो लेडीज को  ऐसे पोस्टर चिपकाकर  इनफीरियर होने का अहसास क्यों कराते हो भगवान जी।

मेरी एक  मौसी हैं जो लखनऊ में रहती हैं। वह हैं एकदम पूरी ठेठ भक्तन। घर में बाथरूम से बड़ा तो मंदिर बनवाया है। हर महीने भगवान की एक  नई मूर्ति मुंहमांगे दाम चुकाकर  लाती हैं। एक बार गांव जाकर वहां के मंदिर में बड़ी-सी मूर्ति स्थापित करने की ठान ली। शायद जयपुर से लाई थीं देवी माता की   संगमरमर की मूर्ति पूरे पचास हजार में। 

तामझाम के  साथ वे अपनी ससुराल पहुंचीं,  भंडारा लगाया, गांववालों के लिए भोज प्लान किया। मंदिर में मूर्ति पहुंचाई। पुजारी जी और घर के सभी पुरुष मंदिर पहुंचे, मगर अरे ये क्या मौसी जी, आप  कहां घुस रही हैं मंदिर के  अंदर ? बाहर ही रुकिए,  पढ़ी-लिखी लगती हैं,   इसीलिए नहीं मालूम कि  देवी माता की   मूर्ति स्थापना के समय लेडीज आर नॉट अलाउड।  (पता नहीं, अब ये कौन  से कोर्स में पढ़ाया जाता है,  जो पुजारी जी ने उन्हें पढ़ा-लिखा गंवार बताया)।
एनीवे, आप तो बस ये सोचो कि  कैसा वाला शॉक  लगा होगा मौसी जी को , वही ऐड वाला जिसमें सबक  बाल 90 डिग्री में खड़े हो जाते हैं।  इतना गुस्सा काइकू  गॉड ? अरे, ये तो समझो  कि ये लेडीज आपसे कितना प्यार करती हैं। और वैसे भी गुस्सा तो राक्षसों का  गहना होता है, तो प्लीज गॉड टेक  ए चिल पिल।

Thursday 7 April 2011

नियति...


हुलसते  दृगों  में 
बह रहे थे स्वप्न हर्षिल 
वक्त का पहिया चला यूं
सब, मूक हैं निष्प्राण हैं

गंध बनकर  जो  मलय 
महकती थी चहुँ दिशा
रुख बदलकर चल पड़ी
नियति ही बलवान है

पुराने कोटर भी 
हो गए हैं रिक्त  
जिनमें रहते थे
जोड़े गिलहरियों के 

बेला, विदा की
संताप नहीं कोई 
समय के चक्र पर
मैं भी हूँ और तुम भी

उठ चली हूँ आज 
एक पथ के पथिक से
हो गयी हूँ मौन
उत्थान -पतनाघात से

जीवन इसी का नाम है 
रूकती नहीं कभी ये गति
सहज मूंदकर पलकें
  जो मिट गया वह जी गया

पंथ पर छोड़ दिए हैं 
मैंने कुछ पदचिन्ह 
विनाश ही गढ़ता है 
सृजन की दास्ताँ...

Monday 21 March 2011

युगान्तरों तक...


प्रात  के  पहर  में 
अप्रतिम  रूप  से  फैली
अरुणिमा की सिन्दूरी विमायें 
करती हैं सर्जना 
प्रीत तूलिका की
प्रति,  दिन- बरस -  युग

झुरमुटों से झांकती 
अलसाई पड़ी सुथराई
  बहकर बयार संग 
गाती  राग फाग का
अटा पड़ा है लालित्य
हर,  पुष्प-विटप-निकुंज पर 

मुकुलित पड़े हैं सब 
कचनार-कुमुदनी औ 'कदम्ब'
भिन्न रंगों में रंग गए
 खेत-बाग-वन 

इक रंग तो मुझ पर भी है 
रहेगा युगों तक 
नेह-प्रेम -औचित्य का 
 गहराता जाता है 
हर क्षण - पल -पहर 

 देता है अपरिसीम पुलकित स्नेह 
अंतस से करता आलिंगन
गूंजता है चहुं ओर
चटक जैसे अंशुमाली 

रंग...
बन हर्षिल प्रभाएं 
करता  नव्याभिमाएं 
भरता पुष्प नवश्वास के 
हर शिरा - रोम -व्योम में 


 देखो ना 'सांवरे'
फाग के इन
  लाल-पीले-हरे-नीले 
विविध रंगों से 
कितना चटक है 
तुम्हारी प्रीत का रंग  
रहेगा मुझ पर बरसों-बरस 
युगान्तरों तक.....

Saturday 5 March 2011

अव्यवस्थित स्नेह ....



पवन की पालकी पर सवार हो
पुलकित स्नेह का
नैसर्गिक सौंदर्य
निचोड़  देती हूँ अक्सर
बादलों की मुट्ठियों से
तुम तक पहुँचती तो होंगी
ये खुशबूदार बरसातें!


जिक्र तो किया था तुमने भी
रेशमी एहसासों का 
उपवन के  पहले गुलाब की खुशबू का 
बादलों के बीच मुकाम  का
बंद मुट्ठी  से निकली दुआ का 
और फिर ठिठक कर कहा ...जाने वो क्या था


तुम्हारे विचारों के झुरमुट से 
उन्नयन करता कड़वापन
इंगित कर देता है
संदेह की दस विमायें


ऐसा तो नहीं
मेरे स्नेह पुष्प चले गए हों
किसी अगत्यात्मक देश
बन कपूर की गोटी
शायद  घुल गए हों !


मत रखो आक्रोश
नहीं जंचता क्षोभ तुम पर
बाँट लो स्मृतियाँ
अव्यवस्थित कर दो स्नेहिल शब्द 
चटका दो पगे प्रेम का घड़ा

निः संकोच, संभव हो यथा 
बुहार दो अवशेष नेह के   
इतिवृत्तों को पोंछ दो
खींच दो हाशिये की  नदी
गढ़ों प्रेम के नए सोपान


संभवतः  
उस प्रणय  सरिता में
स्वायत्त प्रशमन करते 
तुम्हारे संदेहात्मक शब्द 
मोक्ष पाएं ...

Monday 24 January 2011

       व्यथा कि गांठ .......  
     

तुम्हारे कहे शब्द,वर्ण 
अतिगुंजित हैं
आज भी मुझमें 
क्या तुम भी अनुभव कर पाते हो
मेरे अलसाये सवर्ण गीतों को

तुम्हारे पुलक अरण्य में
खिलते पुष्पों की
इक कलम
काट ली थी मैंने 
संभवतः मेरे निकुंज में भी
विराजे बसंत

दूर से निहारती हूँ
तुम्हारी सकुचाई यादों की पगडंडियों को
चलती रहती हूँ उस मोड़ पर
जो नया है मेरे लिए

तुम, जो हो गए थे
कथित दोष पूर्ण
झट से मांग बैठे थे
यादों का हर क्षण

कैसे दे देती तुमको
वो सारी यादें
बन के ठूंठ
कैसे रह पाती
जानते हो ना
   ठूंठ पर तो कभी पतझड़ भी नहीं आता 
 
  स्याह रातों में
खुल जाती है
व्यथा कि गाँठ
और भरभराकर गिर जातीं हैं
कुछ स्मृतियाँ
अपेक्षित प्रेम की

भक्क  लाल आँखों में
जलते रहते हैं पल...प्रतिपल 

रोम-रोम प्रेम से पगे
    तुम कहीं श्रेष्ठ
  तुम्हें रोक पाने में
       मैं रही अक्षम....

Tuesday 18 January 2011

इंतजार.........